मंगल दोष निवारण उपाय

जीवन में मंगल कार्य की अनुमति देने वाले, समस्त पृथ्वी के युवराज, पृथ्वीपुत्र मंगल में आज आपकी कृपा एवं माँ सुमंगला के आर्षीवाद से आपके गृहस्थ जीवन में मंगलकारी होने के विरूद्ध जो षड़यन्त्र या अमंगल शब्द कुछ दैवज्ञवर्ग द्वारा आपको बताया है। उसके दोष निवारण के लिए जो संबंधित ज्योतिष ग्रन्थों एवं यदाकदा मुझे प्राप्त हुई उसे संग्रहित कर आपके लिए जो भक्ति विवाह कार्य एवं अन्य मांगलिक कार्यों में आपको विहनकर्ता दर्षाया है। उसके अपनी बुद्धि से जनमानस तक पहुँचाने का प्रयास कर रहा हूँ आप मुझे आर्षीवाद प्रदान करें। क्योंकि राजाधिराज महाकाल एवं देवी महाकाली के आर्षीवाद के बाद आपकी अनुमति आवष्यक है। अतः मैं नतमस्तक होकर आपको प्रणाम करता हूँ।
आकाषे तारका., पाताले हाटकेष्वरम्।
मृत्यु लोके महाकालं, लिलिड्ड नमोस्तुते।।
अर्थात आकाष में तारक नामक दुष्ट राक्षस का संहार करने के लिए कुमार कर्तिकय को बल प्रदान करने वाले तारकेष्वर ज्योतिलिलिड्ड. पाताल में अपूर्व धन सम्प्रदा के स्वामी एवं मेरे कुल के कुलदेवता नाग शक्ति स्वरूप भ्ज्ञगवान हिरण्य स्वर्ण क्रान्ति स्वरूप हाटकेष्वर ज्योर्तिलिड्ड और इस सम्पूर्ण मृत्यु लोक के स्वामी राजाघिराज महाकाल के आषीर्वाद एवं कृपा प्रसाद मुझ पर सदैव बनी रही, यहू त्रय ज्योर्तिलिलिड्ड जो सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड को संचालित करते हैं। मैं इन्हें नतमस्तक होकर प्रणाम करता हूँ।
आकाषे तारकेष्वरी पाताले हाटकेष्वरी।
मृत्यु लोके महाकाली षक्तित्रयं नमोस्तु ते।।
आगे मे। वन्दना करता हूँ भगवान षिव की शक्ति जो तीन लोक एवं सम्पर्ण-सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड में सदैव जगदीष्वरी कहलाती है। ऐसी मेरी माँ ब्रहनषक्ति आकाष में स्थित तारकेष्वरी शक्ति को जिसके बल के प्रभाव से 6 माह का बालक कार्तिकेय देव सेना का सेनापति नियुक्त हुआ, उसके बाद सुमिरन करता हूँ अपनी कुल देवी माँ हाटकेष्वरी को जिसने मुझे अपने नागकुुल में जन्म देने का शुभ आर्षीवाद प्रदान करते हुए सदैव मेरे साथ मेरी मार्गदर्षक बनकर मुझे सद्प्रेरणा देती रहती है। एवं धर्मप्रथ पर आने वाली विपत्तियों का नाष करती है। जिस भूमि पर जन्म लेने के लिए सदैव देवता लालमीत रहते हुए उस मृत्यु प्रदेष की स्वामिनी राजाधिराज महाकस की शक्ति को प्रणाम करता हूँ जो आज सदैव हर एक धर्मरक्षक के जीवन की रक्षा करती हुए इस धरा से अधर्म रूपी दानव को नष्ट करने के लिए प्रलय की दूसरी शक्ति स्वरूपा है। मैनें यहाँ दूसरी शक्ति इसलिए कहा है कि षिव प्रलंयकर कहलाते हैं। त्रिनैत्र धारी षिव का नैत्र ही प्रथम प्रलय स्वरूप है। इन तीनों शक्तियों का वरद् हस्त सदैव मुझ पर बना है। मैं इन्हें नतमस्तक होकर प्रणाम करता हूँ।
मड्डल मड्डलाधारे, माड्डलाधरे, माड्डल्ये मङतप्रदे।
मड्डलार्थ मड्डलेषे, मड्डलं देदि में भवे।।
जीवन में मंगल कार्य की अनुमति देने वाले, समस्त पृथ्वी के युवराज, पृथ्वीपुत्र मंगल में आज आपकी कृपा एवं माँ सुमंगला के आर्षीवाद से आपके गृहस्थ जीवन में मंगलकारी होने के विरूद्ध जो षड़यन्त्र या अमंगल शब्द कुछ दैवज्ञवर्ग द्वारा आपको बताया है। उसके दोष निवारण के लिए जो संबंधित ज्योतिष ग्रन्थों एवं यदाकदा मुझे प्राप्त हुई उसे संग्रहित कर आपके लिए जो भक्ति विवाह कार्य एवं अन्य मांगलिक कार्यों में आपको विहनकर्ता दर्षाया है। उसके अपनी बुद्धि से जनमानस तक पहुँचाने का प्रयास कर रहा हूँ आप मुझे आर्षीवाद प्रदान करें। क्योंकि राजाधिराज महाकाल एवं देवी महाकाली के आर्षीवाद के बाद आपकी अनुमति आवष्यक है। अतः मैं नतमस्तक होकर आपको प्रणाम करता हूँ।
कुण्डली एवं गुण मिलान भारतीय संस्कृति में गृहस्थ जीवन के प्रमुख आधारा है। आम जन विवाह के पहले इन आधारों का ही सहारा लेते है। प्रायः देखने में आता है कि 90 प्रतिषत कुण्डलियाँ केवल ग्रहों की विवेचनाओं में अदूरदर्षिता के कारण मागंलिक होने जैसे बन जाती है। जबकि वह मांगलिक नहीं होती है। मंगल एक अमंगलकारी नहीं अपितु मंगलकारी ग्रह है। यह विज्ञान, उर्जा तथा युद्ध का कारक है। यह बलवान हो तो जातक का शरीर पुष्ट एवं वीरता से भरा होता है। लेकिन दक्षिण प्रदेष के श्लोक ने इसे सम्पूर्ण धरा पर ज्योतिषा की राय से भय दाता अमंगलकारी सिद्ध कर दिया है।
श्लोक:- लग्ने व्यगे, च पाताले, जामित्रे चष्ठि में कुंजे।
कन्या भर्तृविनाषाय, भर्ता कन्या विनाषकृत।।
अर्थात् लग्न सप्तम द्वादष भाव में मंगल हो तो कन्या अपने स्वामी को यापति अपनी परिन के लिए का नाष करता है या उसके जीवन को समाप्त करने वाला होता है । एक श्लोक ने मंगल जो कि युवराज है। पृथ्वी पुत्र है। उसे कलंकित करके रखा हुआ है। उसके पहले हम मंगल पर विचार करते हैं। मंगल ग्रह की जानकारी न हों तब तक उसके बारे कोई बात लिखना मंगल के प्रति अन्याय होगा। मंगल की उत्पत्ति पृथ्वी से होती है। एवं उज्जैन प्रदेष मंगल का जन्म स्थान कहलाता है एवं पृथ्वी के बारे में जाने तो सूर्य पृथ्वी पिता तथा चन्द्रमाता के समान है। क्योंकि दोनों की उत्पत्ति पृथ्वी से पहले की है। अगर ऐसा माना जाए तो मंगल ग्रह में त्रिगुण पृथ्वी का पालन करने का गुण, सूर्य का अन्धकार को दूर कर जीवन में चेतना लाने का गुण एवं चन्द्र का जीवन शीतलता लाने का गुण विद्यमान मिलते हैं।
कर्क राषि मंगल की नीच राषि तथा मकर राषि मंगल की उच्च राषि कहलाती है। मेष एवं वृष्चिक का स्वामी मंगल है। सिंह राषि माता के पिता सूर्य की राषि होने से इसे प्रिेय है। राषि चक्र में यह तीन नक्षत्री मृगषिर चित्रा, धनिष्ठा का स्वामी है। धनिष्ण नक्ष्ज्ञत्र में परम उच्च का होता है तथा अष्लेषा नक्षत्र में परम नीच का होता है। बुध तथा राहु इसके शत्रु तथा सूर्य, चन्द्र, गुरू इसके मित्र है। मंगल की तीन दृष्टियाँ है चतुथ, सप्तमं एवं अष्टम यही दृष्टियाँ मंगल दोष का मुख्य आधार रूप में परिभाषित है।
उपरोक्त कुंडली में जिन स्थानों में मंगल है वह अपनी तीन विषिष्ट दृष्टियों से इन स्थानों में वैवाहिक जीवन को प्रभावित करता है इस कारण से दक्षिण के देवश्री ने इसे अच्छा नहीं बताया है।
वैवाहिक जीवन की सफलता के लिए पाँच चीजें आवश्यक है:-
1. उत्तम आरोग्य जीवन
2 भवन, वाहन एवं पारिवारिक सुख
3. रति सुख जीवन साथी का सहयोग
4. अनिष्ट की आषंका के भय से मुक्ति एवं आयु
5. अच्छी क्रय शक्ति या विलक्षण बुद्धिमता
जन्म कुण्डली में दैवज्ञवर्ग इसका विचार क्रमषः प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, द्वादष भाव से करते हैं।
इससे यह स्पष्ट होता है। पाँच भाव ही दैवज्ञों की दृष्टि में मंगल दोष के कारक स्थान है।
परंतु दैवज्ञ वर्ग यह जानते हुए कि सिर्फ मांगलिक दोष ही पूर्णतः वैवाहिक संबंध या जीवन में बाधक नहीं होता है। इसके अलावा अगर शनि, सूर्य, राहू, गुरू तथा केतू सप्तम दाम्पत्य भाव से संबंध रखने पर विवा में बाधा एवं अलगाव या तलाक का कारण बनते है। सूर्य ग्रह द्वारा बाधा उत्पन्न होने पर व्यक्ति के जीवन साथी की मृत्यु भी संभव है। अतः विवाह कार्य में विलेब या बाधा के लिए आँख मूंदकर मंगल को उत्तरदायी मान लेना कोई विवके पूर्ण निर्णय नहीं होगा दैवज्ञ समुदाय का मेष, सिंह, कर्क, तुला, वृष्चिक, धनु मीन लग्न में मंगल अतिषुभ व योगकारी होता है। कुंडली में इस ग्रह की शुभ स्थिति जीवन में सफलता का मापदंड लेती है। अतः इन उपरोक्त लग्नों में मंगल कभी भी मांगलिक दोष उत्पन्न नहीं करता है। तो अषुभ फॅल कैसे दे सकता है। वृषभ, मिथुन, कन्या, मकर एवं कुंभ लग्न में ही दोषपूर्ण ग्रह स्थिति में हानिकारक परिणाम का कारण है सकता है। उक्त तथ्य से स्पष्ट होता है कि विवेचना किए बगैर हम मंगल दोष की भांतियों की भेंट नहीं चढ़ा सकते है। कि पत्रिका आपकी मांगलिक है आँखें मूंदकर कह देना दैवज्ञ समुदाय को शोभा नहीं देता है। भाव प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम एवं द्वादष भाव में मंगल दिखा नहीं कि दैवज्ञ समुदाय में मत भिन्नता दर्षाते हुए कुंडली को मंगल दोष कहा जा रहा है जो कि उचित नहीं है।
प्रष्न यह उठता है कि क्या वास्तव में मंगल इतना भयानक कि वह जीवन साथी की मृत्यु करता है ? इस मंगल दोष का शास्त्रोक्त आधार क्या है ? क्या मंगल दोष परिहार के कोई उपाय नहीं है ? जहाँ तक प्रीााव का सवाल है इन भावों ग्रह स्थिति के अनुसार ही आंषिक रूप से हमारे सम्पूर्ण जीवन एवं कुछ मत से गृहस्थ जीवन को प्रभावित करता है। अगर हम मंगल के दोष की बात करते हैं तो एक मत से दैवज्ञ समुदाय को कहना चाहूँगा की स्वास्थ खराब होता है। तो आयुर्वेद में जीवन रक्षक औषधियाँ मौजूद है उसी प्रकार हमारे ज्योतिष मैं अगर ग्रह के दुष्परिणाम की बात कही गई है तो उसके उपाय भी है मैं आपके समक्ष अपने जीवन में आए उन उपायों को संक्षिपत रूप से आपके समकक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। सबसे पहले मैं लग्न के अनुसार अपने विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ जो कि कई दैवज्ञ समुदाय के चर्चा के दौरान मेेरे समक्ष विचारों के आदन प्रदान में आएं जिसमें मंगल की लग्न के अनुसार भाव को दूषित दोष कारक विवेचना प्रस्तुत की गई है।
लग्न:-
मेष:- स्वराशि होने से मंगल जातक को किन्हीं भी भावों में मंगल दोष नहीं देता है।
वृषभ:- इस लग्न में जातक को मंगल प्रथम भाव को दूषित करता है जिससे पारिवारिक जीवन कलहपूर्ण होता है।
मिथुन:- इस लग्न के जातक को सप्तम भाव को मंगल दूषित करता है। जिससे साथी को कष्ट या तलाक होता है।
कर्क:- इस लग्न में जातक में मंगल अष्टम को मंगल दूषित करता है जिससे साथी की आयु क्षीण होती है।
सिंह:- माता के पिता की राषि होने से मंगल दोष किन्हीं भी भावों में नहीं होता है।
कन्या:- इस लग्न के जातक को लग्न, चतुर्थ, सप्तम भाव में मंगल दूषित करता है। क्योंकि यह शत्रु ग्रह बुध का लग्न है। जिसमें क्रमषः लग्न से रोगी, सुखहीन चतुर्थ से पुराधीन, बन्धु रहित, बुद्धिहीन एवं सप्तम से जीवन साथी से मत भिन्नता से वियोग या तलाक होता है।
तुला:- इस लग्न के जातक को लग्न एवं द्वादष भाव में मंगल दूषित करता है। लग्न से चुगलखोर, सुखहीन, धनहीन द्वादष से धन का लोभी, क्रोधी स्वभाव, परस्त्रीगामी एवं अधर्मी झूठ बोलने वाला जातक होता है।
वृष्चिक:- इस लग्न में जातक को अष्टम भाव मंगल दूषित करता है। जिससे जल में डूबने से मृत्यु होती है। जीवन साथी का वियोग होता है।
धनु:- इस लग्न के जातक को मंगल प्रथम, चतुर्थ, भाव को दूषिक करता है। जिसमें प्रथम भाव से सदैव रोग ग्रस्त रहता है। पाप की प्रवृत्ति अधिक होकर सुख विहीन होता है चतुर्थ भाव से नीच कुल में उत्पन्न होना, बन्धु रहित परस्त्री गामी जातक होता है।
मकर:- इस लग्न के जातक को द्वरष भा में मंगल दूषित करता है जिससे जातक दूसरे का धन हरण करने वाला हास्य प्रिय, स्त्रियों को प्रसन्नता देने वाला, दुष्ट प्रवृत्ति आचार विचार से हीन होता है।
कुम्भ:- इस लगन के जातक को मंगल प्रथम भाव को दूषित करता है जिससे नीच व्यक्ति का संग प्राप्त होता है। धनहीन एवं पारिवारिक सुख से हीन होता है।
मीन:- इस लग्न के जातक को प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, द्वादष भाव को मंगल दूषित करता है।
प्रथम भाव से पारिवारिक जीवन कलह पूर्ण।
चतुर्थ भाव से भूमि संपत्ति वाहन सुख की हानि।
सप्तम भाव से भूमि संपत्ति वाहन सुख की हानि।
द्वारष भाव से जीविका संपत्ति की हानि होती है।
आप दैवज्ञ समुदाय के समझ यह लग्न विवेचना मंगल के विभन्न भावों दूषित करने से संबंधित है परंतु अगर हमने यहाँ रोग की एवं रोगी की बात कही है तो किसी अंग में पीड़ा है उसे भी बताया है यह सभी विचार प्रस्तुत करने का एक मात्र लक्ष्य है। मंगल दोष से संबंधित भ्रान्तियों को दूर करना ताकि जन मानस जो कि वैवाहिक युवक युवती होने पर जब अपना सन्तान की विवाह चिन्ता को दूर करने का प्रयास करते है। और जब मंगल दोष एवं पत्रिका के मांगलिक होने की बात दैवज्ञ समुदाय कह देता है। एवं उसमें भी भय वाहल बात करते हैं। उसी सोच से घबराकर जब वे मेरे पास आए तब मुझे इस विषय पर सोचने को मजबूर किया और मैनें युवराज मंगल के बारे में भय समाप्त करने का मन बनाया जो कि आगे प्रस्तुत कर रहा हूँ। अगर हम किसी भी मान्य सिद्धांत, संहिता एवं मूहूर्त ग्रन्थ में यह जानने का प्रयास करें िकवे मंगल ग्रह को दोष एवं उपाय के बारे में कया तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं। उसमें इस ग्रह के दोष एवं उपायों का विस्तृत विवेचन नहीं प्राप्त नहीं होता है। अतः मैनंे जो यहाँ प्रस्तुत किया है वह ईष्वरीय आज्ञा से यहाँ एकत्रित किया है। जो कि पृथक-पृथक पुस्तकों में अल्प मात्रा में प्राप्त हुआ है।
दक्षिण भारत के कुछ ग्रन्थ तथा उत्तर भारत के मूहूर्त ग्रन्थों में इन उपायों को संक्षिप्त उल्लेख मिला है। जिसके आधार पर मंगल दोष के उपायों एवं दोष मुक्ति का निवारण किया गया है जिनके आधार पर मंगल दषम भाव में पूर्ण बली बल = बल (60)
एकादष एवं नवम भाव में बली = बल (50)
द्वादष एवं अष्टम भव में बली = बल (40)
सप्तम भाव प्रथम भाव में स्थान बली = बल (30)
द्वितीय एवं षष्ठ भाव में दिगबली = बल (20)
तृतीय एवं पंचम भाव में नैसर्गिक बली = बल (10)
चतुर्थ भाव में मंगल निर्बल होता है। = बल (0)
इन बलों के आधार पर ही मंगल के दोष एवं ग्रह के निर्बल एवं बली का ज्ञान दक्षिण के ग्रन्थों से प्राप्त हुआ है।
“चन्द्रयुक्तम् गुरूगुक्तम् शनियुक्तम भौमयो”।
दृष्टितम पूर्ण मन्दस्य भैम दोषं नं किचंदे।।
अर्थात जन्म कुण्उली में मंगल लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम द्वादष भाव में होने पर मंगल के साथ यदि चन्द्र अथवा गुरू अथवा शनि कोई भी एक ग्रह बैठा हो या शनि की पूर्ण दृष्टि (तृतीय, सप्तम, दषम्) मंगल पर पड़ रही हो तो ऐसी जनम कुण्डली में मंगल दोष किचिंत्र मात्र भी नहीं होता है। परन्तु दैवज्ञ समुदाय तो केवल लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, द्वादष, मंगल की देखकर ही निर्णय ले रहा है। उसे साथ के ग्रह से एवं दृष्टियों से कोई मतलब नहीं रहा है। जो उचित नहीं है।
“केन्द्र स्त्रिकोण गुरू दोसर्हत केन्द्रेष चन्दे शुभदो करोति।
षष्ठे च याने शुभसयात् न भौम दोषेण विचारणीया।।”
अर्थात जन्म कुण्डली में मंगल लग्न चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, द्वादष भा में होने पर यदि जन्म चक्र में केन्द्र (प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, दषम) अथवा त्रिकोण (प्रथम, पंचम, नवम) में गुरू हो तो या केन्द्र (प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, दषम) में चनद्र हो या छठे या ग्यारवे भाव में राहु हो तो जन्म कुण्डली मंगल दोष से मुक्त रहती है।
“भौम मेष सिंहस्थ, यदि जन्मोके द्रष्यते।
वृष लग्न स्थवै प्रोक्ता, सोभाग्यं दोषमुक्तयः।।”
अर्थात जन्म चक्र में मंगल लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, द्वादष भाव में होने पर यदि किसी भी भाव का मंगल मेष, सिंह या वृषभ राषि का होता है तो जन्म कुण्डली मंगल दोष से मुक्त रहती है।
“मिथुने कुजम् सपतस्थे कर्क लग्ने अष्टमें।
कन्या प्रथम चतुर्सप्त भौमं शुभफल दायका।।”
अर्थात जन्म कुण्डली में मिथुन राषि का मंगल सप्तम भाव में बैठा हो या जन्म पत्रिका कर्क लग्न की होने पर अष्टम भाव का मंगल या कन्या लग्न में प्रथम चतुर्थ सप्तम भाव में स्थित होने पर भी मंगल दोष न होकर शुभ फल दायक मंगल होता है।
“न मंगली मंगल भृगुद्वितीये न मंगली मंगल राहुयोगे।
न मंगली पष्यति जीवजस्य, दोषस्य रहित समृद्विकारी।।”
जन्म कुण्डली में यदि द्वितीय भाव में शुक्र हो या मंगल के साथ राहु हो, मंगल को गुरू देखता है तो मंगल दोष मुक्त होकर समृद्धिकारी होता है।
“अजे लग्ने, व्यगे चापे पाताले वृष्चिक स्थिते।
वृषे जाय, घंडे रंधे, भौम दोषा न विघते।।”
अर्थात जन्म कुण्डली में मेष का मंगल लग्न में, वृष्चिक का मंगल चतुर्थ भाव में, वृषभ का मंगल सप्तम भाव में, कुम्भ का मंगल अष्टम भाव में, धनु का मंगल द्वादष भाव में होता जन्म कुण्डली में मंगल दोष किचिंद मात्र भी नहीं होता है।
“नीचस्थो रिपु राषिस्थ खेटो भाव विनाषकः।
मूल स्वतंगु मित्रस्थो भाव वृद्धि करोव्यलम्।।”
अर्थात जन्म कुण्डली में स्वराषि मेष, वृष्चिक मूल त्रिकोण उच्च मकर, मित्रस्थ सिंह धनु मीन कर्क राषि अर्थात 5,9,12,4 क्ष्ज्ञेत्रीग्रहों में मंगल दोष कारक नहीं होता है। और कुण्डली मंगल दोष से मुक्त रहती है।
“केन्द्र कोणे शुभाधे च, त्रिषड़ायेडत्य सदग्रहाः।
तदा भौमस्य दोषों न, मदने मद पस्तथा।।”
अर्थात जन्म कुण्डली के 3,6,11 वे भाव में अषुभ ग्रह हो और केन्द्र 1,4,7,10 और त्रिकोण 5,9 में शुभ ग्रह हों या सातवें भाव का स्वामी अपने घर में हो तो मंगल का दोष कुण्डली में नहीं रहता है।
“सबले गुरौ भृगौ वा लग्ने घूनेडपिवा भौमेंः।
वकिणी नीच ग्रहे वार्डक स्थेडपि वा न कुजदोषः।।”
अर्थात जन्म कुण्डली में गुरू व शुक्र बलवान हों फिर भले ही 1,4,7,8,12 वे भाव में मंगल चाहे वक्री नीच या सिंह राषि में हों मंगल दोष से कुण्डली मुक्त रहती है। उसमें मंगल दोष नहीं रहता है।
शनि भौमोडथवा कष्चिततः पापो वाता द्वषो भवंतः।
तेष्वेव भवनेष्वेव भौम दोष विनाषकृत।।
अर्थात जन्म कुण्डली में कोई भी पापग्रह अगर 1,4,7,8,12 भाव में कन्या राषि का हों तथा इन्हीं भावों में वर की कुण्डली में हों तो मंगल दोष नष्ट होता है। या मंगल के भाव स्थान पर दूसरी कुण्डली में कोई पाप ग्रह बैठा हो तो कुण्डली का मंगल दोष स्वतः नष्ट हो जाता है।
अर्केदु क्षैत्र जातानां कुंज दोषो न विद्यते।
स्वोच्च मित्रभे जातानां तद् दोषो न भवेतः किल।।
अर्थात जन्म कुण्डली में सिंह या कर्क लग्न में मंगल हो तो कुण्डली मांगलिक नहीं कहलाएंगी चाहे मंगल लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, द्वादष भावों में कही भी स्थित हों व सुख समृद्धि कारका होगा।
यामित्रे च यदा सौरि लग्ने वा हिबुकेडथवा।
अष्टमें द्वादषे वापि भौम दोष विनाषकृत।।
अर्थात जन्म कुण्डली वर और कन्या दोनों में से किसी भी एक की कुण्डली में शनि 1,4,7,8,12 भाव में हों एवं दूसरे पक्ष की कुण्डली में उन्हीं भवों में यदि मंगल स्थित हो तो मंगल का दोष नष्ट हो जाता है।
वाचस्पतौ नवपंचम केन्द्रसंस्थे जातागना भर्वातपूर्ण विभूतियुक्ता।
साध्वी सुपुत्र जननी सुखिनी गुणाठ्यः सप्ताष्टकेयदि भवेद शुभ ग्रहोदीप ।।
अर्थात कन्या की जन्म कुण्डली के 1,4,7,9,10 भाव में बृहस्पति उपस्थित हो तो कन्या का मंगल दोष समाप्त होता है। वह उसे सौभागयवती, पुत्रवती, सुखी, धर्मी, गुणषाली एवं भाग्यवृद्धि को बढ़ोन वाला हो जाता है। इसलिए दैवज्ञ समुदाय यहाँ भी यह निर्णय सोच विचारकर करे की हमारी विवेचना में क्या दोष है।
त्रिषठ एकादषे राहुः त्रिषठ एकादषे शनिः।
त्रिषट् एकादषे भौमः सर्वदोष विनाषकृतः।।
(मानसागरी) र्
अािात जन्म कुण्डली के 3,6,11 भाव में दूसरे जातक की जन्म कुण्डली में शनि, राहु, मंगल में से कोई भी एक या दो या तीनों ग्रह उपस्थित हो तों प्रथम जातक की कुण्डली में मंगल के सारे दुष्प्रभाव नष्ट हो जाते हैं।
भौमेन सदृषो भौम पापो ना तादृषो भवेत्।
विवाहः शुभद्र प्रोक्त चिरायुः पुत्र पौत्रदः।।
अर्थात जन्म कुण्डली में मंगल के समान मंगल या पापग्रह (सूर्य, शनि, राहू, केतु) प्रथम जातक को हो तो द्वितीय जातक का विवाह करना शुभ होकर वह पुत्र, पौत्र एवं दीर्घायु प्रदान करने वाला होता है।
चर राषि गतौ भौमः चतुरष्ट व्यये द्वेय।
तदा न कुंज दोषस्यात् सर्वत्र शुभदो भवेत्।।
अर्थात जन्म कुण्डली के 1,4,7,8,12 भाव में मंगल चरराषि मेष, कर्क, तुला और मकर का उपस्थित हो तो मंगल का दोष नष्ट होता है। एवं मंगल शुभकारी, सुखमय जीवन प्रदान करने वाला होता है।
स्थान पंचक गो दोषः कुणस्य गुरूणाडथवा।
बुधेन सह संस्थिता, तद् दोषो नैव संभवेत्।।
अर्थात जन्म कुण्डली में स्थित मंगल गुरू या बुध के साथ किन्हीं भी 1,4,7,8,12 भाव मंे स्थित हो तो या युतियुक्त हो तो कुण्डली का मंगल दोष नष्ट होता है। इसी प्रकार यदि मंगल, सूर्य, शनि, राहू, केतु के साथ युति युक्त हो तो कुण्डली का भौम पंचक दोष भी नष्ट हो जाता है।
न मंगली मंगल राहू भौगे, न मंगली चन्द्र मतस्य केन्दे्र।
न मंगली यस्य भृगु द्वितीये, न मंगली यस्य पष्र्यात जीव।।
अर्थात जन्म कुण्डली में द्वितीय धन भाव में शुक्र हों, गुरू की दृष्टि मंगल पर हों, गुरू मंगल युति हों, मंगल राहु की युति हों या चन्द्रमा केन्द्रगत हो तो मंगल दोष कुण्डली में स्वतः समाप्त हो जाता है। उसे मांगलिक कहना तर्क संगत नहीं होगा।
सप्तस्थो सदा भौम, गुरूणा च निरीक्षतः।। (जातक चन्द्रिका)
तदातु सर्व सौरव्यम् च मंगली दोष नाषकृत।।
अर्थात जन्म कुण्डली में सप्तम भाव का मंगल यदि गुरू से देखा जाय तो सप्तम दाम्प्तय का मंगली दोष नष्ट होकर सौभाग्य एवं जीवन साथी को दीर्घायु प्रदान करता मंगल हो जाता है। अतः अष्विीन, मधा, मूनक्षत्रो में मंगल हो तो भी मंगल दोष नहीं रहता है। केतू का फल मंगलवत होता है।
कुज जीव समायुक्तो युक्तो वा कुज चन्द्रमा।
चन्द्र केन्द्र गते वापि तस्य दोषो न मंगली।।
अर्थात जन्म कुण्डली में मंगल, गुरू युक्ति चन्द्र-मंगल युक्ति हों अथवा चन्द्र 1,4,7,10 भाव में हो तो मंगल दोष नहीं रहता है। यदि मंगल, चन्द्र बुध, गुरू से युक्ति कर रहा हो तो मंगल दोष नहीं रहता है। परन्तु इसतें चन्द्र और शुक्र का बल अवष्य देखे तो उचित होगा।
द्वितीय भौम दोषस्तु कन्या मिथुन यार्विना । (र्दिक्षण ज्योतिष ग्रन्थ)
अर्थात जन्म कुण्डली के द्वितीय भाव में बुध का राषि मिथुन व कन्या हो तो और मंगल द्वितीय भाव में हो तो मंगल दोष नही रहता है।
चतुर्थे कुज दोष स्याद तुला वृषभ योर्विना।
अर्थात जन्म कुण्डली के चतुर्थ भाव में शुक्र की राषि वृषभ तुला हों व मंगल द्वितीय भाव में हो तो मंगल दोष नहीं रहता है।
अष्टमें भौम दोषस्तु, धनु मीन द्वयोर्विना।
अर्थात जन्म कुण्डली के अष्टम भाव में गुरू राषि धनु, मीन हों और मंगल अष्टम भाव में स्थित हो तो अष्टम मंगल पीड़ादायक नहीं होता है। कुण्डली मंगल दोष से मुक्त रहती है। अतः दैवज्ञ समुदाय अष्टम मंगल को अरिष्ट सूचक मानते हैं। परन्तु राषि भाव का विचार नहीं करते है। यह एक विचार का प्रष्न है।
व्ययेतु कुज दोषस्याद कन्या मिथुन यार्विना।।
अर्थात जन्म कुण्डली के द्वादष व्यय भाव में बुध राषि मिथुन कन्या हो एवं द्वितीय धन भाव में मंगल हो तो मंगल का दोष नहीं लगता है।
दम्पत्र्योजन्म काले व्यय, धन हिबुके सप्तमें लग्न रन्धे, ।
लग्नाच्चद्राच्च शक्राद्यिपि खलु विवसेतुभूमि पुत्रोदृयोष्च।
तप्साम्ये पुत्र मित्र प्रचुर धन युक्ति दम्पति दीर्घकाल,
जीवेता मेष योगेन भर्वात मृतिरपि प्राहुरत्राति मुख्याः।।
अर्थात उपरोक्त श्लोक इस बात का समर्थन करता है कि प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, द्वादष के अलावा यदि मंगल द्वितीय धन भाव में स्थित है तो मंगल दोष युक्त कुण्डली होगी एवं हमें यह विचार करना होगा कि मंगल द्वितीय भाव में कितना मान्य है। इस द्वितीय भाव मंगल दोष का समर्थन जातक परिजात में उल्लेखित मिलता है।
जन्म कुण्डली के जनम लग्न मंे 1,4,7,8,12 भाव में मंगल जन्म लग्न, चन्द्र लग्न, एवं शुक्र लग्न से हो एवं वर कन्या की दोनों कुण्डली में ऐसा होने पर दोनों दीर्घकाल तक जीवन का भागकर पुत्र, पात्र, धन, सम्पत्ति को प्राप्त करते हैं।
भवेतस्य किं विद्यमाने कुटुम्बे, धनेंवा कुजे तस्य लब्धेधधेनकिम।
यथा त्रोप्येत् मर्कटः कष्ठहांर पुनः सम्मुख कों भवेद्वादभग्नः।।
अर्थात जिसकी जन्म कुण्डली में द्वितीय धन भाव में मंगल हो वह जातक किस काम का क्योंकि उसके पास धन वैीाव होते हुए भी वह अपना व अपने परिवार का भला नहीं कर सकता है। द्वितीय धन भाव गत मंगल वाला जातक धन को नष्ट करता है। परिन के स्वास्थ्य को खराब करता है। परन्तु दूसरे भावस्थ मंगल को दक्षिण भारता के कुछ ग्रंथो को (अपवाद स्वरूप) छोड़कर कोई ज्योतिष ग्रन्थ में कोई विषेष उल्लेख मंगली दोष को प्राप्त नहीं होता है। इसे मान्यता नहीं प्रदान की गई है।
प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रन्थ प्रष्न मार्ग के अनुसार मंगल जिस भाव में हो उस भाव को स्वामी बलवान हो तथा उस भाव को देखता हो साथ ही सप्तमेष या शुक्र त्रिक स्थान में न हो तो मंगल का आषुभ प्रभाव कुण्डली में समाप्त होता है।
भाव दीपिका के अनुसार यदि मंगल शुक्र की राषि वृषभ तुला में तथा सप्तम भाव का स्वामी बलवान होकर केन्द्र या त्रिकोण में हो तो मंगल दोष कुण्डली में नहीं रहेगा।
मंगल अपनी उच्चराषि मकर (10) स्वंय का राषि मेष या वृष्चिक मित्र राषि सिंह, धनु, मीन में हो तो मंगल दोष कुण्डली में किंचिद मात्र भी नहीं होगा दैवज्ञ सुदाय इस मत का खंडन करता हैं क्यों यह तर्क संगत विषय है। कोई अपने या मित्र का बुरा नहीं चाहेगा।
जन्म कुण्डली में मंगल पर गुरू की दृष्टि पड़ रही हो तो मंगल दोष समाप्त हो जाता है। चाहे मंगल 1,4,7,8,12 भावों में से किसी भी भाव में विद्यमान हो।
कुण्डली के चन्द्र लग्न शुक्र लग्न, नवमांष लग्न में मंगल की स्थिति प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम , द्वादष में ाहें तो कुछ स्थितियों को छोड़कर मंगल अषुभ फल नहीं देताह ै। दो पापी ग्रह शनि राहू या शनि केतु की युक्ति युक्त स्थिति हो सूर्य, मंगल के साथ युक्ति युक्ता हो तो सभी भावों में शुभ फल दायक होता है। किन्तु सूर्य शनि की युक्ति हो तो मंगल सभी भावों मंे अषुभ फल देने वाला होता है। कुण्डली मंे कन्या की जन्म कुण्डली मंगली योग हों और वर मंगल दोष से मुक्त हों अर्थात वर की कुण्डली मंगली योग न हों एवं वर की कुण्डली में दारहा योग बनता हों तब कुण्डली में गुणों की अधिकता होने पर (24 गुण से अधिक) विवाह कर देना चाहिए यह मत प्रसिद्ध ज्योतिषि मालव क्षेत्र श्री नन्दकिषोर जी शास्त्री के ळें जिनहोने अपनी उम्र में अनेक विवाह गुण अधिकता होने पर सम्पन्न करावाएँ है। वर कन्या की कुण्डली में मंगली दोष समान रूप से हों तो गुणों की संख्या अल्प होने पर भी विवाह कर देना चाहिए मुहूर्त प्रकाष, मुहूर्त गणपति आदि अनेक ग्रन्थों में इस मत के प्रमाण उल्लेखित है।
मंगल शुक्र की राािष् (वृषभ-तुला) में हो और सातवे घर का स्वामी बली होकर केन्द्र 1,4,7,10 अथवा त्रिकोण 5/9 भाव में हो तो मंगल दोष नहीं रहेगा। स्त्री पुरुष दोनों की जन्म कुण्डली गत शुक्र से उक्त स्थानों में पाप ग्रह मंगलादि विचारने की बात पर दैवज्ञ समुदाय एक मत नहीं है। शुक्र से पापग्रह का विचार केवल पुरुष कुण्डली में शुक्र स्थान से कना चाहिए। ऐसी परिस्थिति में केवल शुक्र पाप क्रह गिना जाएगा न कि लग्न ओर चन्द्र से पाप गणना की तरह पाप ग्रहों की संख्या ली जाएँगी। वृहज्जातक, जातक परिजात आदि सभी जातक फलित ग्रन्ािों में पुरुष की कुण्डली से फल विचार पर बल दिया जाना वर्णित है तो कन्या की कुण्डली में इतने मत क्यों लिए जा रहे हैं। अगर मंगल पुरुष ग्रह है तो वह स्त्री कुण्डली में कैसे दोष उत्पन्न करेगा। यह दोनों विषय पर विचार करना होगा कि मंगल दोष केवल इस मत से पुरुष कुण्डली में ही माना जाए इससे कन्या की कुण्डली को पूर्ण मुक्त क्यों नहीं रखा जा सकता हैं या यह कह दे कि मंगल दोष पुरुष कुण्डली में ही होता है। यह कहना पड़ सकता है।
भूदेव द्विजमात्र दैवज्ञ समुदाय को पक्षपात रहित यह विचार कना होगा कि क्या मंगल पुरुष-स्त्री दोनों कुण्डली में दूषित होता है या कया 1,4,7,8,12 भाव के अतिरिक्त अन्य किसी भाव 2,3,5,6,9,10,11 भावों में दोष उत्पन्न नहीं करता है। या क्या कोई अन्य ग्रह मंगल से अधिक हमारे वैवाहिक जीवन को बाधा कारक या अषुभ फल प्रदान करने वाला नहीं है। कया शेष आठ ग्रहों का वैवाहिक ग्रहस्थ जीवन से कोई संबंध नहीं हो। ता केवल 1,4,7,8,12 भाव में मंगल अषुभ फल करता है। अगर यह सुनिष्चित होता तो प्राचीन पूर्वाचार्य इस श्लोक का समर्थन नहीं करते।
श्लोक:- आजे लग्न व्यये चापे पाताले वृष्चिक स्थिति।
वृषेजाये घंटे रंध्रे भौम दोषो न विद्यते।।
अर्थात पूर्वाचार्यों ने एक मत से यह समर्थन किया है कि मेष का मंगल लग्न, वृष्चिक का चतुर्थ भाव में वृषभ का सप्तम भाव में कुम्भ का अष्टम भाव में, एवं धनु का द्वादष व्यय भाव में कुण्डली मंगल दोष से पूर्ण रूप से मुक्त है।
मकर, मेष सिंह, वृष्चिक, धनु, मीन राषि के मंगल को शुभ माना है तथा केन्द्र त्रिकोण पति होने से कर्क, सिंह लगन में मंगल को योग करक या समृद्धिकर्ग कहा है।
सिंह लग्ने यदा भौमः पत्र्चमे च निषाकरः।
व्ययस्थाने यदा राहुः स जातः कुल दीपकः।। (मान सागरी)
अर्थात जन्म कुण्डली में यदि सिंह लग्न में मंगल स्थित हो एवं 5 भाव में चन्द्रमा, 12 भाव में राहु हो तो जातक कुलदीपक होता है।
लगने वा सप्तमें भौमः पत्र्चमे वा दिवाकरः।
व्यय स्थाने यदा राहु विष्यातः स न संषयः (मान सागरी)र्
अािात जन्म कुण्डली में लग्न या सप्तम दाम्पत्य भाव में मंगल हो एवं 5 भाव में सर्य 12 भाव में राहु हो तो वह जातक लोक विख्यात होता है।
यह दो तर्क मंगल की सिंह लग्न सप्तम दाम्पत्य में स्थिति को यह दर्षाता है कि मंगल के विरूद्ध पृथ्वी दैवज्ञ समुदाय जेसा कोई षडत्रयंत्र रचकर बदनाम करने की कोषिष की है। कयोंकि इन दोनों भावों का संबंध केन्द्र में होने से मस्तिष्क लग्न भाव, एवं सप्तम दाम्पत्य वैवाहिक जीवन या शेष जीवन से अधिक है । अगर जातक प्रथम भाव से कुलदीपक एवं सप्तम से लोक विख्यात है तो दोष कैसा ?
महर्षि पाराषर जी के वचनानुसार “सर्वे त्रिकोणनेतारों गे्रहाः शुभ फल प्रदाः”।
अर्थात 5,9 का स्वामी होने पर मंगल ग्रह अषुभ फल प्रदान नहीं हकरता है। चाहे 1,4,7,8,12 भाव में वह कयों न स्थित हो अन्य दैवज्ञ ज्योतिष आचार्य के मत के अनुसार परस्पर वर कन्या की कुण्डलियों में भौम (मंगल) एक दूसरे के तुल्य हों अथवा उक्त भावों में शनि हो अथवा गुरू ग्रह का शुभ प्रीााव हो तो मंगल दोष के साथ-साथ अन्य अषुभ ग्रहों का दुष्प्रभाव भी नष्ट हो जाता है।
मुहूर्त दीपक के स्पष्ट है कि
चन्द्र भृगु द्वितीये न मंगली पष्र्यात यस्य जीवः।
न मंगली केन्द्रगत च राहू न मंगली मंगला राहु यौग।1।
केन्द्र कोणे शुभाढ़ये च त्रिषड़ायेडथ सद्रग्रहाः।
तदा भौमस्य दोषो न मदने मदन पस्तथा।।2।।
राषिमैत्र यदायाति गणैक्य वा यदा भवेत।
अथवा गण बाहुल्य भौम दोषो न विघते।।3।।
अर्थात जन्म कुण्उली के द्वितीय धन भाव में चन्द्र शुक्र स्थित हों मंगल पर गुरू की पूर्ण दृष्टि हों, केन्द्रगत राहु भौम की युक्ति हो तो मंगल दोष नहीं रहता साथ ही मुहूर्त दीपक यह भी कहती है कि केन्द्र त्रिकोण में शुभ ग्रह 3,6,11 भाव में स्व्रही, सप्तमेष मंगल दोष को नष्ट करता है। साथ ही प्रसिद्ध ज्योसिषी ननदकिषोर शास्त्री जी के मत का यह श्लोक प्रमाण मुहूर्त दीपक में मिलता है कि राषिष की मित्रता गण की ऐक्यता और गुण मिलान में गुण की अधिकता कुण्डली के मंगल दोष को दूर करती है। अर्थात इन तथ्यों का विचार किया जाए तो गुण मिलान, गणों के एक समान होना, एवं राषि मैत्री ये तीन ज्योतिष के प्रमुख बिन्दु ही कुण्डली के मंगल दोष को समाप्त कर देते हैं तो हमज न मानस को भयभीत कर ज्योतिष विज्ञान को कहा ले जा रहे है यह विचार का प्रष्न है।
मान सागरी के अनुसार
दषभस्थो यदा भौमः शत्रुक्षेत्रस्ािितो यदि।
म्रियते तस्य बालस्य पिता शीघ्रंन संषय।।
अर्थात कुण्डली के दषम भाव में मंगल शत्रु राषि का हो तो उस जातक का पिता अल्पायु योग बनने से जल्दी मृतयु को प्राप्त होता है। यहाँ मंगल केवल शत्रु क्षेत्र में ही कहा है। यहाँ 1,4,7,8,12 भाव में मंगल नहीं है। जो पिता जीवन देता है। उसके दषम मंगल समाप्त कर देता है। तो क्या यह मंगल दोष से युक्त नहीं होगा। यहाँ एक जीवन का जन्म होता है एवं दूसरे का क्षर्य अािात दषम मंगल ज्यादा अनिष्ट कार हुआ।
लग्न जीवो धने मन्दो रवि भौमस्तथा बुधः।
विवाह समये तसय बालसय म्रियते पिता।।
अर्थात कुण्उली के जनम लग्न में गुरू, द्वितीय धन भाव में शनि, सूर्य, मंगल, बुध हो तो उसके विवाह समय में पिता का भरण होता है। यहाँ मंगल केवल द्वितीय भाव में होने मात्र से ही जातक के समस्त कर्मो े संरक्षककर्ता पिता की मृत्यु का कारण बन जाता है। यहाँ पर न तो वह शत्रु क्षेत्री है और न ह ीवह 1,4,7,8,12 भावों में स्थित है फिर क्यों हम केवल दाम्पत्य वैवाहिक जीवन के लिए मंगल को उत्तरदायी मान बैठे हैं। कया दैवज्ञ समुदाय अन्य भावों पर मंगल का विष्लेषण कयों नहीं करता है। यहाँ हमने दो उदाहरण देखे जो यह कहते हैं कि मंगल 1,4,7,8,12 भाव में न होते हुए अगर शत्रुक्षैत्री दषम भाव में हो तो पिता को समाप्त करता है। या गुरू के लग्न में स्थित होने पर मंगल किसी भी राषि का द्वितीय धन भाव में हो तो विवाह समय पिता को समाप्त करता है। इससे अनिष्ट कया होगा कि जीवन में अपनी संतान की सुख समृद्धि का स्वप्न देखने वाला पिता अपने स्वप्न को देखने के लिए जीवित ही न रहे ?
भौम पंचक दोष
क्या है भौम पंचक दोष ? इस पर विचार करने से पूर्व क्या शनि राहू और अन्य क्रूर ग्रहों के कारण कुण्डली मंगली कहलाती है क्या ? इस पर विचार आवष्यक है। इसके लिए मंगल, शनि, राहू, केतू और सूर्य पांच ग्रह क्रूर ग्रह की श्रेणी में आते हैं। यह ज्ञान आवष्यक है। यदि कुण्डली में 1,4,7,8,12 भावों में इनमें से कोई भी स्थित हो या सप्तमेष का 6,8,12 भाव में होना भी मंगली दोष को उत्पन्न करता है तब यहाँ मंगल की उपस्थिती नहीं भी हो तो कुण्डली मांगलिक या मंगल दोष से युक्त होती है। अर्थात उस जातक के जीवन को संवारने वाले या वैवाहिक मंगल कार्य में बाधा उत्पन्न हो रही है। जिस ज्योतिष पूर्वाचार्यों ने भौम पंचक दोष से संबोधित किया है।
द्वितीय भाव अगर उपरोक्त ग्रहों से दूषित हो तो उसके दोष शमनादि पर विचार करना चाहिए क्योंकि वैवाहिक दृष्टिगत भावों में द्वितीय धनभाव व द्वादष व्यय भाव का विषेष महत्व है क्यांेकि द्वितीय कुटुम्ब से संबंधित है द्वादष शैय्या सुख से जातक को पूर्ण जीवन रति सुख प्रदान करता है।
चतुर्थ भाव का मंगल पारिवारिक सुख समाप्त करता है, सप्तम भाव का मंगल दाम्पत्य सुख समाप्त करता है, अष्टम भाव का मंगल गुदा एवं लिंग में रोगोत्पत्ति करता है। लग्न भाव का मंगल शारीरिक अस्वस्थता अरोग प्रदान करता है। लग्न का मंगल 1,4,7,8 भाव को प्रभावित करेगा दुष्ट ाके तो शरीर सौरव्य पति व गुप्तांगों को प्रभावित कर दाम्पत्य सुख ें निरसता प्रदान करता है।
सप्तम भाव का मंगल पति, पिता,षरीर व कुटुम्ब सुख को एवं मतानुसार पत्नी के रतिसुख को प्रभावित करता है। चतुर्थ भाव का मंगल सौख्य, पति, पिता को प्रभावित करता है। अष्टम भाव का मंगल लिंगमूल, गुदावधि, इन्द्रिय सुख लाभ आयु व भाई बहनों के सुख से जातक प्रभावित करता है। द्वदष भाव का मंगल कुटुम्ब, संतान, इन्द्रिय सुख, आवक भाग्य एवं मानसागरी क ेमत के अनुसार पिता की आयु को प्रभावित करता है।
अतः इन भावों में लग्न के अनुसार मंगल एवं क्रूर ग्रहों की स्थिति नष्ट मानी गई है स्त्रियों की कुण्डली में सप्तमस्थ एवं अष्टमस्थ मंगल का दोष अधिक प्रभावषाली माना गया है।
मंगल का स्त्रियों की कामवासना से विषेष संबंध होता है। मासिक धर्म की गड़बड़ियाँ प्रायः इसी कारण से दूषित होती है पुरुष की कामवासना का संबंध शुक्र से है। मंगल रक्तवर्णीय और शुक्र श्वेतवर्णीय के उत्तम मिलन से शुद्ध आचरण युक्त पुष्ट सन्तान की उत्पत्ति होती है। इन दोनों का शुद्ध होना ही कुल वंष वृद्धि का द्योतक है।
कुण्डली में किसी भी दृष्टि से मंगल व शुक्र का संबंध न हो तो सनतानोत्पत्ति दुष्कर है, गृहस्थ जीवन या वैवाहिक कर्म का मुख्य लक्ष्य वंष वृद्धि है। संतानोत्पत्ति के बिना हम अपने गृहस्थ जीवन के प्रण से मुक्त नहीं हो सकते हैं। मंगल मकर में शुक्र मीन राषि में उच्च का होता है संस्कृत में कामदेव को “मकर घ्वज” (मीन केतू) नाम से भी संबोधित किया गया है जिसकी ध्वजा में मीन है मीन व मकर दोनांे जल के प्राणी है काम देव को जलतल प्रधान माना गया है। वसन्त पंचमी को प्रायः शुक्र जब अपनी मीन राषि में आता है तब इसका जन्म माना जाता है फूलों में राग का जन्म रजोदर्षन है यह कन्याओें के के प्रथम रजोदर्षन से काम प्राणस्थ हो गया है इस बात का सूचक है मंगल रक्त विकास और रक्त वृद्धि दोनों में सहायक है। सप्तम भाव पति/पत्नि कामदेव व रतिक्रीड़ा का है इसलिए सप्तम भाव का विचार अवष्य दैवज्ञ समुदाय को करना चाहिए।
कुण्डली मिलान दो नवयुगलों के नये जीन साथी के रूप में स्वीकारोक्ति के साथ उनकी सम्पूर्ण जीवन की लीला का न टूटने युक्त बंधन का प्रारंभिक चरण होता है। अगर जन्म कुण्डली में दोनों की उपरोक्त वर्णित तथ्यों की बातें मिल जाती है। एक दूसरे के उत्पन्न दोष स्वतः नष्ट हो जाते हैं। शनि मंगल से बनने वाले दोष प्रीाावी होते हैं। आप मिलान करते समय दोनों कुण्डलियों के स्थानों में समानता के चक्कर में आकर दोनों कुण्डलियों के सप्तम भाव के मंगल का मिलान तब तक शुद्ध न माने जब तक अन्य ग्रहों की स्थिति लग्न का विष्लेषण न कर लें क्योंकि सप्तम भाव दोनों के गुप्तांगों को दूषित करने वाला होता है। अगर रति सुख नहीं रहता है तो जीवन कलहपूर्ण व कष्टमय हो जता है। समान भावों में विराजमान मंगल जीवन में दोषों को बढ़ावा देता है एवं कहने का तात्पर्य यह है कि एक जातक के सप्तम भाव में मंगल एवं द्वितीय जातक के अष्टम भाव में मंगल हो तो कभी भी कुण्डली मिलान को उत्तम न कहे सप्तम घर का स्वामी शुक्र तथा गुरू पर पड़ने वाले कुप्रभाव दृष्टिगोचर हो तो भी मिलान को उत्तम न कहे। यह योग कलह कारक एवं तलाक और विवादों का कारण होता है।
कुछ ज्योतिष आचार्यों ने डबल व ट्रिबल मंगली का भी होना बताया है। यह क्या है जानते हैं ?
सिंगल मंगली:- कुण्डली में लग्न के अनुसार 1,4,7,8,12 भाव में मंगल की स्थिति को सिंगल मंगली कहा गया है।
डबल मंगली:- कुण्डली में 1,4,7,8,12 में मंगल अपनी नीच राषि कर्क का स्थित हो तो मंगल द्विगुणित प्रभाव डाल सकता ै। तब कुण्डली को डबल मंगली कहा गया है। ज्योतिष आचार्यों ने उपरोक्त भावों में शनि, राहू, केतू, सूर्य क्रूर क्रह की उपस्थिति के साथ मंगल की युक्ति की डबल मंगली की श्रेणी में रखा है।
ट्रिबल मंगली:- मंगल अपनी नीच राषि कर्क का होकर 1,4,7,8,12 भावों में हो और मंगल अपनी नीच राषि में शनि, राहू, केतू, सूर्य क्रूर गेहों से युक्ति करता है तो तब कुण्डली को आचार्यों ने ट्रिबल मांगलिक कहा है।